मनुष्य बुद्धिमान होने पर भी स्वार्थता और आर्थिक आवश्यकता उसको अधर्म कार्य करने की प्रेरणा देता है।
सांसारिक माया मोह उसको अस्थिर संसार को स्थिर वास का बोध कर देता है।वास्तव में संसार किसका है?
एक भ्रम ऐसा ही प्रकाश देता है अधर्म का कितना आदर है,उतना धर्म का नहीं।
अधर्म अपने जीत को छिपाकर ही खुश या संतोष का अनुभव करता है।वह खुल्लमखुल्ला
अपने अधर्म सफलता प्रकट नहीं कर सकता।धर्म अपने हार को भी ढिंढोरा पीट सकता है
।लोग उसके हार के कारण जानकार जिसने उसे हराया ,उस अधर्मवान की निंदा करेंगे ही।
काले धन विदेशी बैंक में जो जमा कर रखेंगे,वे अपने छाता तानकर नहीं कह सकते भरी सभा में,
मेरे करोड़ों काला धन छिपकर रखा है।यही अधर्म का लज्जाजनक कार्य है।सद्गुणवाले ऐसे लज्जाशील कार्य
नहीं करेंगे।जिन्होंने किया है, कम से कम अकेले अपने मन में पछतायेंगे ही।वे अपने अधर्म की कमाई से कभी
संतोष प्राप्त नहीं करेंगे।उनका जीवन सब कुछ होने पर भी नरकतुल्य ही है।यही अधर्म को धर्म की सज़ा है।